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पौष पीठे का महत्व अब भी बरकरार, घर घर बनने लगे पौष पीठा – नवादा  |

रवीन्द्र नाथ भैया |

पौष संक्रांति की शुरुआत होते ही जिले के ग्रामीण इलाकों के घर-आंगन में पारंपरिक व्यंजन पूस पिठ्ठा की खुशबू फैलने लगी है। बदलती जीवन शैली और आधुनिकता के प्रभाव के बावजूद सदियों पुराने व्यंजन का स्वाद और महत्ता अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में जीवंत है।
खेतों में गेहूं की बुआई के बाद ग्रामीण परिवारों में जब कुछ अवकाश मिलता है, तब महिलाएं चावल के आटे, खोआ और गुड़ की महक से पूरा घर महका देती हैं। पूस पिठ्ठा केवल भोजन नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक जुड़ाव का प्रतीक माना जाता है।
दरअसल धान कटते ही नये चावल घरों में आते हैं और इन्हीं चावलों से पिट्ठा की तैयारी शुरू होती है। इसके लिए चावल को भिगोंकर सुखाया जाता है और फिर बारीक पीसकर आटा तैयार किया जाता है, इसके बाद गुड़ में नारियल, तिल, बेदाम, तीसी या खजूर का मिश्रण बनाकर भराव तैयार की जाती है।
ग्रामीण घरों में चूल्हे की आंच पर पकने वाले पिट्ठे का स्वाद अब भी अलग पहचान रखता है।
कहते हैं विशेषज्ञ:-
पूस पिट्ठा केवल स्वादिष्ट व्यंजन ही नहीं, बल्कि ऊर्जा से भरपूर खाद्य है। चावल का आटा आसानी से पच जाता है, जबकि गुड़ शरीर को गर्मी देता है। नारियल, तिल और तीसी के साथ इसका संयोजन इसे और अधिक पौष्टिक बनाता है।
पोषण विशेषज्ञ बताते हैं कि गुड़ आयरन से भरपूर होता है और सर्दियों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है, वहीं तीसी में फाइबर, ओमेगा-3 फैटी एसिड और एंटीऑक्सीडेंट पाये जाते हैं, जो शरीर को ताकत देते हैं। खोआ विटामिन डी और कैल्शियम का अच्छा स्रोत है, जिससे हड्डियां मजबूत होती हैं। ठंड के मौसम में पिट्ठा खाने से शरीर गर्म रहता है। इसकी सुपाच्यता इसे बच्चों, वयस्कों और बुजुर्गों सभी के लिए उपयुक्त बनाती है। यही कारण है कि बिहार के साथ-साथ अन्य राज्यों में भी यह व्यंजन चाव से खाया जाता है।
आधुनिक खानपान के कारण युवाओं में पिट्ठा का चलन हुआ कम:-
तेज रफ्तार जीवन, बाजारवाद और आधुनिक खानपान के कारण युवाओं में पिट्ठा का चलन कुछ कम हुआ है। गावों एवं शहरों में केक, पेस्ट्री और फास्ट फूड की बढ़ती लोकप्रियता ने पारंपरिक व्यंजनों को पीछे धकेला है। पहले हर घर में नियमित रूप से बनता पिट्ठा अब त्योहारों और विशेष अवसरों तक सीमित होकर रह गया है। हालांकि ग्रामीण इलाकों में इसकी परंपरा अब भी मजबूत है और लोग पौष मास की शुरुआत होते ही इसे बनाने खाने लगते हैं।
परंपरा बचाये रखने की है आवश्यकता:-
पिट्ठा सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि पारिवारिक एकजुटता का प्रतीक है।पहले पूरा परिवार पिट्ठा बनाने में शामिल होता था, जिससे रिश्तों में मिठास बढ़ती थी। बदलते समय में भले ही इसकी लोकप्रियता में कमी आयी हो, लेकिन ग्रामीण समाज में इसकी सांस्कृतिक महत्ता अब भी जस की तस बनी हुई है। पूस पिठ्ठा का स्वाद लोगों के मन को उसी तरह लुभाता है। आधुनिकता की आंधी के बावजूद यह पारंपरिक व्यंजन अपनी सादगी, महक और पौष्टिकता के साथ ग्रामीण जीवन की पहचान बना हुआ है।

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