नालंदा लिटरेचर फेस्टिवल 2025 का भव्य समापन; संस्कृति, विचार और विरासत का उत्सव बना यादगार – राजगीर ।

रवि रंजन ।
नालंदा : नालंदा लिटरेचर फेस्टिवल 2025 का समापन राजगीर कन्वेंशन सेंटर में चार दिनों तक चले साहित्यिक विमर्श, सांस्कृतिक प्रस्तुतियों और वैचारिक संवाद के बाद गरिमामय और उत्सवी वातावरण में हुआ। समापन दिवस की शुरुआत प्रख्यात हिंदी लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए की गई, जिनका मंगलवार, 23 दिसंबर 2025 को 88 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वक्ताओं और प्रतिभागियों ने उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य की सबसे मौलिक आवाज़ों में से एक बताते हुए कहा कि उनकी सरल लेकिन गहरी लेखनी ने साधारण जीवन अनुभवों को असाधारण साहित्यिक ऊँचाई दी। उनके साहित्यिक योगदान और आने वाली पीढ़ियों पर पड़े प्रभाव को विशेष रूप से स्मरण किया गया।

दिन भर चले सत्रों में नालंदा की वैश्विक विरासत, भारत की पांडुलिपि परंपरा, लोक संस्कृति में गांधी विचार और भारतीय लिपियों की विरासत जैसे विषयों पर चर्चा हुई। समकालीन मुद्दों को भी प्रमुखता मिली, जिनमें आधुनिक साहित्य में ट्रांसजेंडर प्रतिनिधित्व, गिरमिटिया समुदाय के संदर्भ में भारतीय प्रवासी संस्कृति की विरासत और सीमाओं से परे पहचान की बदलती कहानियों शामिल रहीं। बिहार के खानपान, कविता और क्षेत्रीय कलाओं पर केंद्रित सत्रों से समापन दिवस को उत्सवपूर्ण बना दिया।

“इंटरैक्टिव सेशनः लेगेसी” में प्रख्यात विद्वान डॉ. सच्चिदानंद जोशी और मॉरीशस की शिक्षाविद, सांस्कृतिक कार्यकर्ता तथा भोजपुरी आंदोलन की अग्रणी आवाज़ डॉ. सरिता बूधू के बीच सारगर्भित संवाद हुआ। चर्चा में भारतीय सांस्कृतिक विरासत, भाषाई निरंतरता और प्रवासी भारतीयों की भूमिका पर प्रकाश डाला गया। डॉ. जोशी ने बताया कि विदेशों में बसे भारतीय समुदाय किस प्रकार भाषा, परंपराओं और स्मृतियों को संजोकर रखते हैं, और उन्होंने मॉरीशस के आप्रवासी घाट संग्रहालय के अनुभव भी साझा किए। डॉ. बूधू ने भारत से मॉरीशस तक की अपनी यात्रा का उल्लेख करते हुए मॉरीशस भोजपुरी संस्थान के माध्यम से भोजपुरी भाषा के पुनर्जीवन के प्रयासों पर बात की। उन्होंने कहा कि “जब भाषा खो जाती है, तो पहचान भी खो जाती है,” और लोक परंपराओं, भोजपुरी मीडिया तथा यूनेस्को से जुड़े प्रयासों के माध्यम से प्रवासी संस्कृति को वैश्विक पहचान दिलाने की आवश्यकता पर जोर दिया।

“नालंदा: विश्व की ओर एक खिड़की” सत्र का संचालन मिली ऐश्वर्या ने किया। इस सत्र में डॉ. शशांक शेखर सिन्हा ने नालंदा को केवल खंडहर नहीं, बल्कि एक जीवंत और विकसित होती ज्ञान परंपरा के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने हालिया शोध के आधार पर प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के विशाल और बहुविषयक स्वरूप पर प्रकाश डाला तथा बौद्ध दर्शन, विशेष रूप से शून्यता की अवधारणा, में इसकी भूमिका को रेखांकित किया। अभय के. ने कहा कि नालंदा की असली शक्ति उन विचारों में थी जो एशिया और दुनिया भर में फैले, और इसे विश्व के प्रारंभिक वैश्विक ज्ञान नेटवर्कों में से एक बनाते हैं।
“चरखा से चौपाल तकः बिहार की लोक परंपराओं में गांधी विचार” सत्र का संचालन विनय कुमार ने किया। इसमें अरविंद मोहन और पुष्यमित्र ने महात्मा गांधी के विचारों का बिहार के लोक जीवन, गांवों और राजनीतिक चेतना पर पड़े प्रभाव पर चर्चा की। अरविंद मोहन ने चंपारण सत्याग्रह के माध्यम से गांधी के जननेता बनने की यात्रा और चौपाल की संवादात्मक भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने चरखा और खादी को नैतिक जीवन और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। पुष्यमित्र ने चरखे के आर्थिक पक्ष पर चर्चा करते हुए इसे औपनिवेशिक शोषण के प्रतिरोध और स्वदेशी उद्योगों के पुनर्जीवन से जोड़ा।
“बियॉन्ड द बाइनरीः आज के साहित्य में ट्रांसजेंडर चरित्र” सत्र का संचालन लेखिका-कवयित्री किरण भट्ट ने किया। इस सत्र में प्रसिद्ध ट्रांसजेंडर लेखिका, कवयित्री और साहित्यिक चिंतक विजयाराजमल्लिका ने केंद्र और राज्य सरकारों से अपील की कि ट्रांसजेंडर, इंटरसेक्स और एलजीबीटीक्यू लेखकों को भारतीय साहित्य की मुख्यधारा में उचित मान्यता दी जाए। उन्होंने कहा
कि समृद्ध और प्रभावशाली क्वीयर लेखन के बावजूद ऐसे लेखक आज भी राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय साहित्यिक पुरस्कारों और आधिकारिक मान्यता से वंचित हैं। उन्होंने विशेष रूप से बिहार सरकार से आग्रह किया कि ऐसे लेखकों को सम्मानित करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं, ताकि सांस्कृतिक समावेशन और सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिल सके।
“चोखा और गमछा से आगे की कहानियाँ सत्र का संचालन रविशंकर उपाध्याय ने किया। इसमें सांस्कृतिक टिप्पणीकार अखिलेंद्र मिश्रा ने बिहार के खानपान को उसके इतिहास, दर्शन और सामाजिक मूल्यों से जोड़कर प्रस्तुत किया। उन्होंने रामचरितमानस और बौद्ध कथाओं के उदाहरण देते हुए भोजन को स्मृति और नैतिकता का वाहक बताया। आधुनिक फास्ट-फूड संस्कृति की आलोचना करते हुए उन्होंने पारंपरिक भोजन को संतुलित और टिकाऊ बताया तथा मखाना, तिलकुट, अनरसा और सिलाव खाजा जैसे जीआई टैग प्राप्त उत्पादों के संरक्षण की आवश्यकता पर जोर दिया।
“वेरासिटीज ऑफ पोएम’ लाइव शो का संचालन दिनेश माली ने किया। इसमें पद्मश्री हलधर नाग, आशुतोष अग्निहोत्री और डॉ. अजीत प्रधान ने कविता पाठ और संवाद के माध्यम से कविता की सच्चाई, भावनात्मक शक्ति और वैश्विक प्रासंगिकता पर चर्चा की। भाषा, अनुवाद और भारतीय कविता की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति जैसे विषयों पर भी विचार रखे गए।
“एनएलएफ की यात्रा और इसके प्रेरक आयाम” सत्र का संचालन सुनीत टंडन ने किया। इसमें डी. आलिया और संजय कुमार ने नालंदा लिटरेचर फेस्टिवल की परिकल्पना और विकास यात्रा पर प्रकाश डाला। डी. आलिया ने “विरासत, भाषा और साहित्य” थीम के चयन के पीछे नालंदा की सभ्यतागत महत्ता और अंगिका-मगही जैसी मातृभाषाओं की भूमिका को रेखांकित किया। संजय कुमार ने बताया कि यह महोत्सव दलित, महिला, आदिवासी और ट्रांसजेंडर साहित्य को मंच देने के साथ-साथ वर्षभर कार्यशालाओं और डिजिटल माध्यमों के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहता है।
नालंदा लिटरेचर फेस्टिवल के निदेशक गंगा कुमार ने कहा, “नालंदा लिटरेचर फेस्टिवल की पहली यात्रा अत्यंत संतोषजनक रही। इसने नालंदा की उस ऐतिहासिक भूमिका को फिर से स्थापित किया, जहाँ विचारों, संस्कृतियों और परंपराओं का संगम होता है।”
महोत्सव का समापन समापन एवं सम्मान समारोह के साथ हुआ, जिसमें वक्ताओं, संचालकों, कलाकारों और सहयोगियों को सम्मानित किया गया। नालंदा लिटरेचर फेस्टिवल 2025 ने भारतीय बौद्धिक विरासत, भाषाई विविधता और सांस्कृतिक बहुलता के एक सशक्त मंच के रूप में अपनी पहचान को और मजबूत किया।



